शनिवार, 24 जुलाई 2010

अधूरी कविता

रात भर सोची
सोची की कुछ लिख दूं
पर सोच आती रही
जाती रही...
कलम उठाया
सोच को रचने के लिए
क़ागज रंगीन होते गये
पर नहीं रच सकी कोई नज़्म
हर शब्द सोच के साथ थे
बहुत पिरोया शब्दों को
फिर भी नहीं उभर पाई रचना
सोच से कविता क्यों न रचा
फिर लग गई इसे सोचने में
ज़िदगी भी कुछ ऐसी ही है
सोचो कुछ और, होता कुछ और है

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा लिखा है आपने। भाषिक संवेदना प्रभावित करती है।
    मेरे ब्लाग पर राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के संदर्भ में अपील है। उसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया देकर बताएं कि राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने की दिशा में और क्या प्रयास किए जाएं।
    मेरा ब्लाग है-
    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  2. एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
    आपकी चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं!

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