शनिवार, 12 जून 2010

सूखी पत्ती


कहीं से उड़ती हुई इक पत्ती
आ के ठहर गई मेरे जिस्म पर
सूखी थी, थाम न पाई खुद को तेज हवा में
सूखी हुई इक पत्ती
थी इक कहानी इसकी भी
हरी थी...दुनिया भी हरी थी इसकी
सपने थे..अरमान थे...आरजू थे
शाखों से लटकी ...झूलती थी
हवाओं की हंसी उड़ाती
डर न था इसको किसी का
था उसे शाखों का सहारा
सूखी हुई इक पत्ती
वर्तमान की जवानी में मदहोश
भविष्य के बुढ़ापे को भूल गई थी
बहार की रंगीनियों से गुजर
पतझड़ की परछाई में पहुंच
खो दि अपनी हरियाली
कमजोर हो गई शाखों से इसकी पकड़
शाख की नई शोख जवानी की चाहत
कर दिया इसको पराया
हवाओं का बदला उड़ा ले गई इसे
बेरहम पवन के थपेड़ों में गिरते –पड़ते
आ के ठहर गई मेरे जिस्म पर
देखा इसे महसूस किया
रच गई ये रचना।

4 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी लगी आपकी कवितायें - सुंदर, सटीक और सधी हुई।
    मेरे पास शब्द नहीं हैं!!!!

    tareef ke liyee

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  2. ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

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