गुरुवार, 27 मई 2010

रात के एक बजे



रात के एक बजे
जाती हूं रोज उसी रास्ते से
एक मोड़ पर जाकर ठहर जाती है निगाहें
उस मोड़ पर खड़ी एक लड़की
किसी की राह तकती दिखती है
बन संवर कर रोज करती है इंतज़ार
रात के एक बजे... उस मोड़ पर
इंतज़ार अपने शहजादे का नहीं...बल्कि अपने ग्राहक का
ऑफिस से घर जाते वक्त
उस मोड़ से होकर गुजरती हूं...रोज
कभी वो दिखती है...कभी नहीं
दिखती है... तो सोचती हूं कि कर रही है
अपने जिस्म के सौदागर का इंतज़ार
जब नहीं दिखती... वो रोज की दुल्हन
तो सोचती हूं कि मना रहीं होगी
फिर से एक नये के साथ सुहागरात
बेच रहीं होगी अपने जिस्म को बिस्तर पर
कभी दया आती है उसपर
तो कभी गुस्सा समाज पर
पेट की भूख...और समाज की हवस
एक लड़की को रोज दुल्हन बनने पर करती है मज़बूर
रात के एक बजे...।

5 टिप्‍पणियां:

  1. shatpratishat sach hai aapki bat. is pr kai film b ban chuki hai. koi thos nidan hona kathin hai.

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  2. नीतू जी आपकी कविता में छिपा दर्द समझ आया। पर अगर आप दुल्‍हन और सुहागरात शब्‍दों पर फिर से विचार करें तो बेहतर होगा। इसका उल्‍टा भी है। यानी कोई औरत रोज किसी एक के लिए दुल्‍हन बनती है और किसी एक के साथ ही सुहागरात मनाती है। यानी दूसरे नजरिए से दोनों ही जिस्‍म का सौदा करती हैं। आप किधर हैं या किसका पक्ष ले रही हैं यह साफ नहीं है। फिर भी अपनी कविता में ऐसे विषय को उठाने के लिए बधाई। http://utsahi.blogspot.com

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  3. कविता बहुत अच्छी है पर समाज को दोष देने से कुछ नहीं होगा क्यूंकि समाज हम और आपसे ही मिलकर बना है पर क्या करे ??
    आखिर अंधे कुएँ (पापी पेट ) का जो सवाल है
    हां यहाँ मेरा १ सवाल उस लड़की से भी है कि आखिर उसकी जैसे लाखो लड़किया होगी जो पापी पेट के लिए काम करती होंगी पर वो सब ये धंधा नहीं करती होगी
    आखिर मेहनत करके भी कमाया जा सकता है पर इस लड़की को म्हणत करने के बजाय शायाद ये अच्छा लगता हो

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  4. पेट की भूख...और समाज की हवस
    एक लड़की को रोज दुल्हन बनने पर करती है मज़बूर
    अत्यंत मार्मिक

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