शुक्रवार, 6 जून 2014

                         कब तक ?
 
कभी अपने गांव में इतनी भीड़ नहीं दिखी
मेले में भी इतना हुजूम नहीं होता था बहन
पर आज देख ना अपने गांव में मातम है
पर शोर से आंसुओं की आवाज़ थम सी गई है
वो हमारा ही जिस्म था ना
जो पेड़ की शाखों से लटका था
ये वही पेड़ था ना जिसपर हम झूला झूला करती थीं
मगर देख ना गले में फंदा पड़ा हमारा जिस्म झूल रहा है
भेड़ियों ने मिल कर किस तरह हमारे जिस्म को नोचा था
मर तो उसी वक्त गए थे
मगर जनाजा पेड़ पर लटकने के बाद निकला
दीदी ये निर्भया है ना और ये गुड़िया
इन दोनों के साथ भी वहीं हुआ था ना जो हमारे साथ हुआ
हमने सुना था इनके बारे में भी मगर उस वक्त थे अनजान इस शब्द से
तब कहां पता था कि हमारे साथ भी वही गुजरेगा
देखो ना बहन कैसे दोनों चुपचाप रहती हैं
इस कदर हमारी आत्मा जख्मी है कि
देह छोड़ने के बाद भी दर्द की टीस उठती है
कब तलक हमारी रूह भटकेगी
कब तक हमारे गुनहगार को सज़ा होगी
इंसानी जिस्म में छिपे भेड़िये
कबतक यूं ही घूमते रहेंगे
कबतक हम जैसी बेटियां 
इन भेड़ियों की भेंट चढ़ती जाएंगी

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