मंगलवार, 27 मई 2014

                                                          मोदी और मीडिया
 
हमारे समाज में जब एक लड़की की शादी होती है और उसी दिन उसके घर या ससुराल पक्ष में कोई दुर्घटना घट जाती है तो कहा जाता है कि लड़की के पांव शुभ नहीं हैं और उसे कई तरह की मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है। कुछ ऐसा ही तब हुआ जब नरेंद्र मोदी जी के शपथग्रहण के दिन ट्रेन हादसे में कई जिंदगियां हलाक हो गईं..। तो क्या हमारे समाज की प्रचलित धारणाओं के मुताबिक इस हादसे को भी अपशगुन के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। हालांकि मोदी जी ने रेलवे अधिकारी से बात कर पीड़ितों को तुरंत राहत मुहैया करवाने का आदेश दिया जिसकी चर्चा सारे न्यूज़ चैनलों पर इस कदर हुई कि टीवी ट्यून करने पर यह समझ में नहीं आ रहा था कि हादसा कहां, कैसे और कब हुआ, कितने लोग मारे गये और कितने घायल हुए। ब्रेकिंग की पट्टी पर सिर्फ वह संदेश चल रहा था जो नरेंद्र मोदी ने रेल हादसे पर ट्वीट किया था। कई चैनल बदल कर देखे पर कहीं भी रेल दुर्घटना पर कोई अपडेट नहीं था। तो क्या अब न्यूज़ चैनलों के लिए खबरों की गंभीरता का कोई मोल नहीं रहा। शपथग्रहण सामारोह में मोदी कैसी शेरवानी पहनेंगे और शपथ ग्रहण के बाद डिनर का मेन्यू क्या होगा, क्या इसका मोल इतने इंसानों की जिंदगी से भी ज्यादा है। चुनाव शुरू होने से लेकर चुनाव खत्म होने के बाद तक न्यूज चैनलों पर अगर कोई चेहरा सबसे ज्यादा दिखता रहा है तो वो बेशक मोदी का ही है।
                      आजादी से पहले मिशन के तौर पर शुरू हुई पत्रकारिता आजादी के बाद एक व्यवसाय में तब्दील हुआ और अब पूरी तरह कारोबार का रूप ले चुकी है। पहले दूरदर्शन पर ये आरोप लगते थे कि वह खबरों के साथ भेदभाव करता है और सरकारी हित की खबरें ही ज्यादा दिखाता है। मगर आज की तस्वीर देखें तो यह साफ जाहिर है कि निजी न्यूज चैनल भी इससे अछूते नहीं हैं। के. पी. नारायण ने कहा था कि मीडिया एक व्यवसाय बन चुका है और व्यवसाय की सफलता के लिए उचित और कल्पनाशील प्रबंधन पर निर्भर करता है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शब्दों में पत्रकारिता एक उद्योग से कहीं अधिक एक जनसेवा है। जानकारों की मानें तो भारतीय मीडिया अभी भी शैशव अवस्था में ही है। वो अभी तक पूरी तरह जवान नहीं हुआ है। स्वतंत्र और अर्थपूर्ण पत्रकारिता के मामले में हम आज भी अंतरराष्ट्रीय मानक पर बहुत पीछे हैं। इसके पीछे दलील दी जाती रही है कि हमारे दर्शक और पाठक वर्ग की मानसिकता अभी पूरी तरह परिपक्व यानी विकसित नहीं हुई है, जो खबरों की गहराई में जाकर सटीक विश्लेषण कर सकें। अगर ऐसा है तो भी क्या मीडिया का दायित्व नहीं बनता कि वह खबरों में संतुलन बनाकर रखे, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की खबरों को अपेक्षित तरजीह दे। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा था- मैं दबे हुए नियंत्रित समाचार पत्रों की बजाय स्वतंत्रता के दुरूपयोग के सभी खतरों से युक्त पूर्णत स्वतंत्र समाचार-पत्र अधिक पसंद करूंगा।  उनका मानना था कि नेहरू जी समझते थे कि आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली मीडिया भविष्य में भी अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग नहीं करेगी। हालांकि महात्मा गांधी का कहना था कि जिस तरह बाढ़ का पानी तबाही ला देता है, उसी तरह नियंत्रणविहीन पत्रकारिता के दुरूपयोग की आशंका भी बढ़ जाती है।
             इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगाज़ के साथ ही टीआरपी की रेस में आगे निकलने की होड़ के बीच पत्रकारिता का रूप पूरी तरह बदल चुका है। हालांकि तकनीक के इस अत्याधुनिक दौर में भी कुछेक अखबारों ने पत्रकारिता की अस्मिता और मर्यादा बचाये रखी है। चंद अखबारों में खबरों का संतुलन भी देखने को मिलता है। कहां तो यह कहा जाता था कि न्यूज चैनलों के आने के बाद अखबारों के सामने अपने अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती होगी, लेकिन ये आशंका निर्मूल साबित हुई। आज भी खबरों के ज्यादातर तलबगार सुबह की चाय के साथ अखबार पर ही नजर डालना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि उसमें न सिर्फ क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खबरों का उचित समावेश रहता है, बल्कि तथ्यों और आंकड़ों की प्रस्तुति भी कहीं ज्यादा निष्पक्ष और सटीक होती है। कहने की जरूरत नहीं कि प्रिंट मीडिया की यही विशेषता उसे टीवी चैनलों की भेड़चाल से अलग भी करती है और खबरों की दुनिया में शाश्वत भी बनाती है।

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