गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

प्यार और समाज


प्यार क्या है..क्यों होता है..कैसे होता है...इन सब सवालों के अलग-अलग लोगों की परिभाषा अलग-अलग है। अगर हम इन परिभाषाओं से परे सोचे तो प्यार प्यार है जो किसी को भी हो सकता है। मगर हमारा समाज इस परिभाषा को नहीं मानता...वो प्यार शब्द को जानता ही नही...। मै यहां उस प्यार के बारे में कह रही हूं जिसमें जाति..धर्म का बंधन होता है। हम अलग जाति और धर्म में प्यार नहीं कर सकते...। हम उस इंसान से शादी नहीं कर सकते जो अलग धर्म या अलग जाति का हो। हमारा परिवार और समाज इन रिश्तों की इजाजत नहीं देता चाहे सामने वाला व्यक्ति आपको पूरी ज़िदगी खुश रखने में सक्षम होता है। परिवार और समाज के कठोर रवैये से लड़के-लड़कियां अलग तो हो जाते है..परिवार की मर्जी से शादी तो कर लेते है...लेकिन इसके बाद क्या होता है किसी ने गौरव किया हैं। हमारा ये समाज जो प्यार को नहीं मानता वो एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहा है...जिसे इनकी नजरों में अवैध संबंधों का समाज कहते है। क्या हमने कभी ये सोचने की जरूरत महसूस की है..कि जब एक लड़का-लड़की एक दूसरे से प्यार करते है..और फिर अलग होने पर मजबूर होना पड़ता है तो इसके बाद क्या होता है। मै ऐसे कई लोगो को जानती हूं जिनकी शादी के बाद भी प्यार वाला रिश्ता बरकरार है, वो अभी भी अपने पति से या फिर पत्नि से छिप कर मिलते है। हमारी नजरों में ये रिश्ता ग़लत होगा..पर उनकी नजरों में ये रिश्ते कुछ अलग होता है..क्योकि इनका तर्क ये होता है कि शादी तो परिवार वालों की मर्जी से कर लिया पर उस व्यक्ति के साथ मै वो संबंध नहीं निभा पाऊंगी जो एक पति-पत्नि के बीच होता है। परिवार और समाज वालों की खुशी के लिए प्यार करने वाले बलिदान तो दे देते है..लेकिन इसमें तीन ज़िदगी एक साथ बरबाद होती है। आये दिन हम ख़बरों से रूबरू होते है कि शादी के बाद लड़की अपने पति को छोड़ कर प्रेमी के संग भाग गई...लड़का भाग गया। मै ये नहीं कहती की सभी प्यार करने वाले सही होते है...लेकिन अगर आप ऐसे सोचे तो वो प्यार करने वाले जो शादी करना चाहते है तो उनके परिवार वालों के ये समझना चाहिए कि जिन बच्चों को टाइम पास करना होता है वो शादी जैसे चीजों पर विश्वास नहीं करते ...लेकिन जो प्यार के रिश्तें को समाजिक नाम देना चाहते है उसमें कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। मैं अपने कई ऐसे दोस्तों को देखा है..जो अपने भविष्य में करियर के अलावा इस समस्या से जूझ रहे है..डिपरेशन के शिकार हो रहे है। क्योंकि वो किसी ऐसे व्यक्ति के साथ शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहते जिसे वो जानते नहीं है। ऐसे लोगो को बहुत लोग कहते है कि भागकर शादी कर लोग बाद में परिवार अपना तो लेगा। लेकिन क्या ये समस्या का समाधान है....जो लोग ऐसा करते है..उन्हें परिवार को खोने का दंश झेलना पड़ता है...और जो लोग मां-बाप और समाज के चलते अपने प्यार को त्याग कर इनकी मर्जी से शादी कर लेते है..उन्हें फिर एक ऐसे रिश्ते को निभाना पड़ता है जिसे वो चाहते ही नही..मैं यहां ये नहीं कहना चाहती कि ऐसे रिश्ते कामयाब नहीं होते...लेकिन इस रिश्ते में एक दंश ये छिपा होता है कि इस रिश्ते की बुनियाद प्यार से नहीं समझौतें पर रखी गई थी।
जिस समाज में जी रहें है...जो समाज प्यार के संबंधो को नाजायज ठहराती है....वहीं कुछ ऐसे नाजायज रिश्ते बनाने के लिए जिम्मेदार होती है। कुछ लोगो को मेरी ये बात बुरी जरूर लगेंगी लेकिन आज का सच यहीं है कि हम जाति और धर्म को लेकर अपने बच्चों के साथ खिलवाड़ कर रहें है। क्योंकि आज के बच्चे इतने स्वच्छंद हो गये है पहले के बच्चे नहीं जो शादी होने के बाद अपने पुराने रिश्तें को सिर्फ अपने यादों में दबा कर रह जाते थे और एक नई ज़िदगी की शुरूआत करते थे लेकिन आज बच्चे एक्सटरामिरिटल अफेयर यानि शादी के अलावा रिश्तों पर विश्वास करने लगे है...इधर समाज भी खुश और हम भी खुश। तो क्या इसके लिए हमारा सामाज और परिवार जिम्मेदार नहीं है। जब हमारा समाज राधा-कृष्ण के प्यार को मान्यता देती है उसकी पूजा करती है तो क्या अपने बच्चों की पसंद को कबूल नहीं कर सकती। अगर हम समय के साथ हर बदलावा को कबूल कर रहे है तो जाति –धर्म को हटाकर बच्चों के पसंद को अपना पसंद नहीं बना सकते है ताकि एक साफ-सुथरी समाज का निर्माण हो सके।

2 टिप्‍पणियां:

  1. ज़िंदगी के किसी मोड़ पर एक शेर सवाल बनकर कई बार मन के कोनों में गूंजा था- 'न तू खुदा है, न मेरा इश्क फरिश्तों जैसा..दोनों इंसां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें..।'
    ऊपरवाले ने कहा- 'मिलाने वाला 'मैं' हूं, तुम नहीं..इसलिए..। हिजाब यानी पर्दा मेरी रज़ा का है..।'
    'तुम सिर्फ तुम कैसे हो सकते हो, हमारे सपनों, हमारी ख्वाहिशों की परछाई भी तो तुम ही हो, तुम्हारा होना हमारे होने के बाद है..। ' घरवालों का कहना था..।
    'क्योंकि दर्द के हवाले जो हुआ, वही इश्क अमिट हुआ..।' दर्शन ने समझाने की कोशिश की..।
    ख़ैर समाज की तो बात ही क्या करें..?
    न तो जवाब मिला, न हिजाब मिटे..। हिजाबों के उस ओर का मुसाफिर कब का खो गया..लेकिन हिजाब के इस ओर एक लौ ज़रुर ज़िंदा है-
    हम लड़ेंगे साथी
    हम चुनेंगे जिंदगी के टुकड़े..
    कुछ बाज़ उड़ा ले गए हैं
    हमारी खामोशी से जी सकने की ख्वाहिश,
    हम उड़ेंगे उन बाज़ों के पीछे
    हम लड़ेंगे साथी, हम चुनेंगे ज़िंदगी के टुकड़े..।
    हमारी मर्ज़ी से जी सकने की ख्वाहिश को छीनने वाली हर शह के खिलाफ़ जंग लाज़िमी है, ये तब समझ आया जब यही हिजाब दीवार बन गया..। इश्क उस दीवार में कैद रह गया..और ज़िंदगी चलती रही..। वक्त के साथ रंग बदलती ज़िंदगी पर तो वश नहीं लेकिन ज़ज्बे की इस लौ को ऐहसास की हथेलियों में संभालकर रखा है-
    'जुर्रत सौ बार रहे, ऊँचा इकरार रहे, जिंदा हर प्यार रहे'
    जाति, मज़हब, क्षेत्र और न जाने सैकड़ों सरहदों में बंटे समाज में आज़ादी के पंख लहुलूहान हों, फिर हम कभी न उड़ पाएं तो भी, नीरव एकाकीपन ही नसीब बन जाए तो भी..अपने आसपास की दुनिया में इश्क को हर लौ को ज़िंदा रखें हम..। मुझे लगता है, फ़र्क यहीं से पड़ना शुरू होगा..। शायद कभी दुनिया दो आशिक दिलों की बंदगी के लिए पाक हो पाए..।
    जब कभी ज़िंदगी में ऐसा चौराहा आए जहां विद्रोह या रिवायतों में से किसी एक को चुनना हो तो पॉलो कोएलो की ये बात सनद रहे- 'LOVE JUSTIFIES EVERYTHING'
    ज़्यादातर लड़कियों को इस मसले के दो विपरीत सिरों पर खड़ा पाया है..। या तो आज़ादी की लालसा में मूढ़ विद्रोह, भटके कदम या फिर सीधा-सपाट आत्मसमर्पण..।
    आपके विचारों का द्वंद्व आपकी ख़ासियत है..।

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  2. ... भावनाए बाँध तोड़ कर उतरी है ! पर सवाल मौजू भी है और असरदार भी| हम ढूढेंगे जवाब!!! लिखती रहो|

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