रविवार, 11 अक्टूबर 2009

अनजाना लगता अपना शहर


(जब मैं घर गयी तो मुझे लगा कि सब कुछ जैसे बदल गया हो। शहर वही था, परन्तू लोग बदले-बदले से लगे। अपना ही शहर कुछ ही दिनो बाद पराया सा लगने लगा था, सोच रही थी क्या ये लोग बदले है या फिर मैं ही बदल गई हुई। जब मैं अपनी छुट्टियां खत्म कर के आ रही थी तो ट्रेन में मैंने कुछ विचारो को उकेरा।)

वही गली है, वही दुकानें
फिर भी अनजाना लगता अपना शहर
वही लोग है वही दोस्तों का झुंड
फिर भी बेगाने से लगते, ये दोस्त
जब मैं गई अपने शहर
खुद को अलग पराई पायी
क्यों ऐसा लगता है मुझको
गया मैं बदल गई या फिर बदल गया मेरा शहर
जीवन की भागमभाग में
खो गया बचपन का हुड़दग
जब मै अपने दोस्तों से मिली
न वो बचपन वाली बाते थी न वो मजाक भरे पल
बाते थी तो सिर्फ भविष्य की
जीवन जीने के तरीके की
क्यों बदल गया मेरा शहर ?

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