शुक्रवार, 6 जून 2014

                         कब तक ?
 
कभी अपने गांव में इतनी भीड़ नहीं दिखी
मेले में भी इतना हुजूम नहीं होता था बहन
पर आज देख ना अपने गांव में मातम है
पर शोर से आंसुओं की आवाज़ थम सी गई है
वो हमारा ही जिस्म था ना
जो पेड़ की शाखों से लटका था
ये वही पेड़ था ना जिसपर हम झूला झूला करती थीं
मगर देख ना गले में फंदा पड़ा हमारा जिस्म झूल रहा है
भेड़ियों ने मिल कर किस तरह हमारे जिस्म को नोचा था
मर तो उसी वक्त गए थे
मगर जनाजा पेड़ पर लटकने के बाद निकला
दीदी ये निर्भया है ना और ये गुड़िया
इन दोनों के साथ भी वहीं हुआ था ना जो हमारे साथ हुआ
हमने सुना था इनके बारे में भी मगर उस वक्त थे अनजान इस शब्द से
तब कहां पता था कि हमारे साथ भी वही गुजरेगा
देखो ना बहन कैसे दोनों चुपचाप रहती हैं
इस कदर हमारी आत्मा जख्मी है कि
देह छोड़ने के बाद भी दर्द की टीस उठती है
कब तलक हमारी रूह भटकेगी
कब तक हमारे गुनहगार को सज़ा होगी
इंसानी जिस्म में छिपे भेड़िये
कबतक यूं ही घूमते रहेंगे
कबतक हम जैसी बेटियां 
इन भेड़ियों की भेंट चढ़ती जाएंगी

मंगलवार, 27 मई 2014

                                                          मोदी और मीडिया
 
हमारे समाज में जब एक लड़की की शादी होती है और उसी दिन उसके घर या ससुराल पक्ष में कोई दुर्घटना घट जाती है तो कहा जाता है कि लड़की के पांव शुभ नहीं हैं और उसे कई तरह की मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है। कुछ ऐसा ही तब हुआ जब नरेंद्र मोदी जी के शपथग्रहण के दिन ट्रेन हादसे में कई जिंदगियां हलाक हो गईं..। तो क्या हमारे समाज की प्रचलित धारणाओं के मुताबिक इस हादसे को भी अपशगुन के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। हालांकि मोदी जी ने रेलवे अधिकारी से बात कर पीड़ितों को तुरंत राहत मुहैया करवाने का आदेश दिया जिसकी चर्चा सारे न्यूज़ चैनलों पर इस कदर हुई कि टीवी ट्यून करने पर यह समझ में नहीं आ रहा था कि हादसा कहां, कैसे और कब हुआ, कितने लोग मारे गये और कितने घायल हुए। ब्रेकिंग की पट्टी पर सिर्फ वह संदेश चल रहा था जो नरेंद्र मोदी ने रेल हादसे पर ट्वीट किया था। कई चैनल बदल कर देखे पर कहीं भी रेल दुर्घटना पर कोई अपडेट नहीं था। तो क्या अब न्यूज़ चैनलों के लिए खबरों की गंभीरता का कोई मोल नहीं रहा। शपथग्रहण सामारोह में मोदी कैसी शेरवानी पहनेंगे और शपथ ग्रहण के बाद डिनर का मेन्यू क्या होगा, क्या इसका मोल इतने इंसानों की जिंदगी से भी ज्यादा है। चुनाव शुरू होने से लेकर चुनाव खत्म होने के बाद तक न्यूज चैनलों पर अगर कोई चेहरा सबसे ज्यादा दिखता रहा है तो वो बेशक मोदी का ही है।
                      आजादी से पहले मिशन के तौर पर शुरू हुई पत्रकारिता आजादी के बाद एक व्यवसाय में तब्दील हुआ और अब पूरी तरह कारोबार का रूप ले चुकी है। पहले दूरदर्शन पर ये आरोप लगते थे कि वह खबरों के साथ भेदभाव करता है और सरकारी हित की खबरें ही ज्यादा दिखाता है। मगर आज की तस्वीर देखें तो यह साफ जाहिर है कि निजी न्यूज चैनल भी इससे अछूते नहीं हैं। के. पी. नारायण ने कहा था कि मीडिया एक व्यवसाय बन चुका है और व्यवसाय की सफलता के लिए उचित और कल्पनाशील प्रबंधन पर निर्भर करता है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शब्दों में पत्रकारिता एक उद्योग से कहीं अधिक एक जनसेवा है। जानकारों की मानें तो भारतीय मीडिया अभी भी शैशव अवस्था में ही है। वो अभी तक पूरी तरह जवान नहीं हुआ है। स्वतंत्र और अर्थपूर्ण पत्रकारिता के मामले में हम आज भी अंतरराष्ट्रीय मानक पर बहुत पीछे हैं। इसके पीछे दलील दी जाती रही है कि हमारे दर्शक और पाठक वर्ग की मानसिकता अभी पूरी तरह परिपक्व यानी विकसित नहीं हुई है, जो खबरों की गहराई में जाकर सटीक विश्लेषण कर सकें। अगर ऐसा है तो भी क्या मीडिया का दायित्व नहीं बनता कि वह खबरों में संतुलन बनाकर रखे, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की खबरों को अपेक्षित तरजीह दे। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा था- मैं दबे हुए नियंत्रित समाचार पत्रों की बजाय स्वतंत्रता के दुरूपयोग के सभी खतरों से युक्त पूर्णत स्वतंत्र समाचार-पत्र अधिक पसंद करूंगा।  उनका मानना था कि नेहरू जी समझते थे कि आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली मीडिया भविष्य में भी अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग नहीं करेगी। हालांकि महात्मा गांधी का कहना था कि जिस तरह बाढ़ का पानी तबाही ला देता है, उसी तरह नियंत्रणविहीन पत्रकारिता के दुरूपयोग की आशंका भी बढ़ जाती है।
             इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगाज़ के साथ ही टीआरपी की रेस में आगे निकलने की होड़ के बीच पत्रकारिता का रूप पूरी तरह बदल चुका है। हालांकि तकनीक के इस अत्याधुनिक दौर में भी कुछेक अखबारों ने पत्रकारिता की अस्मिता और मर्यादा बचाये रखी है। चंद अखबारों में खबरों का संतुलन भी देखने को मिलता है। कहां तो यह कहा जाता था कि न्यूज चैनलों के आने के बाद अखबारों के सामने अपने अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती होगी, लेकिन ये आशंका निर्मूल साबित हुई। आज भी खबरों के ज्यादातर तलबगार सुबह की चाय के साथ अखबार पर ही नजर डालना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि उसमें न सिर्फ क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खबरों का उचित समावेश रहता है, बल्कि तथ्यों और आंकड़ों की प्रस्तुति भी कहीं ज्यादा निष्पक्ष और सटीक होती है। कहने की जरूरत नहीं कि प्रिंट मीडिया की यही विशेषता उसे टीवी चैनलों की भेड़चाल से अलग भी करती है और खबरों की दुनिया में शाश्वत भी बनाती है।

मंगलवार, 6 मई 2014


                                                 देकर दुहाई ज़माने की
एक परिंदा जब

पंख खोला उड़ने को

काट दिए उसके पंख

वास्ता दे ज़माने की

              पैदा हुई, खुश हुए जन्मदाता

              हुनर सिखाया,लड़ना सिखाया

              बात जब आई आजमाने को

              बंद कर दिया कमरे के भीतर

              देकर दुहाई ज़माने की

टुटना नहीं,गिरना नहीं, झुकना नहीं

ग़लत को ग़लग,सही को सही

कहना सीखाया बचपन से

सच जब बोला,गलत को ग़लत बोला

काट दिए ज़ुबान,शांत कर दिए शब्दों को

कहकर दुस्तर है ज़माने की

                शक्ति कहकर बुलाया भी

                लक्ष्मी कहकर पूजा भी

               पर अबला कहकर दुत्कारा

               कन्या कह हत्या भी की

                लड़की कह रौंदा भी

             मर्यादा कह बंद कर दिया चारदीवारी में

           कह कर रीत है दुनिया की

शुक्रवार, 2 मई 2014

                         प्यार हुआ बाजार हुआ !
इश्क वो बला है जो उम्र की दीवार तोड़कर भी दिल में दाखिल हो जाता है। कहते भी हैं.. ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म का हो बंधन...। जन्म के बंधन का तो पता नहीं पर उम्र की सीमा पर जरूर कुछ कहा जा सकता है..। मीडिया में प्यार के चर्चे रोज़-रोज़ तो होते नहीं और वो भी चुनावी मौसम में..। ऐसे में कांग्रेस के बयान बहादुर नेता दिग्विजय सिंह की इश्क का राज सरेआम होने से इस चुनावी तपिश में लोगों को थोड़ी सी राहत तो ज़रूर मिली है..। लोग थकने लगे थे चुनावी खबरों की ओवरडोज से..। आए दिन नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप का तमाशा देखते-पढ़ते लोग पकने लगे थे..। ऐसे में दिग्गी और अमृता राय का प्यार ठंडी हवा के झोंके जैसी राहत पहुचा गया...। इसी बहाने सोशल मीडिया, जिस पर सिर्फ मोदी और राहुल की जंग छिड़ी है, वहां दिग्गी राजा और अमृता राय की आलिंगन भरी तस्वीरों ने कई आंखों को सुकून तो पहुंचाया ही है...।
माफ कीजिएगा, पर मेरा कोई हक़ नहीं बनता कि किसी की निजी ज़िंदगी को इस तरह पेश करूं, मगर इंसानी फितरत है लोगों की जिंदगी में ताक-झांक करना। खासकर तब जबकि वो शख्स न सिर्फ पूरे देश में एक जाना पहचाना चेहरा हो, बल्कि कहीं न कहीं, कम या ज्यादा, सही या गलत, उसका रिश्ता देश के सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों से भी हो। जाहिर है ऐसी छवि वाले नजीर पर चर्चा लाजिमी हो जाती है। प्यार, इश्क या मोहब्बत, चाहे जो कह लीजिए, ये है बला की चीज। प्यार को पवित्रता के साथ जोड़ा गया है। प्रेम को ईश्वर का प्रतीक कहा जाता है और मोहब्बत दो आत्माओं के मिलन का। विडंबना ही सही पर ये हमारे समाज का कटू सच ही है कि जहां प्रेम को अपराध मानकर प्रेमी युगलों की हत्या कर दी जाती है, उसी समाज में लोग राधा-कृष्ण की प्रेमलीला की पूजा करते नहीं थकते।
खैर! फिलहाल बात दिग्गी राजा की हो रही है तो ये जानना भी जरूरी हो जाता है कि उनका प्यार है क्या चीज?  वैसे ये कहना मुश्किल है कि जीवन के उत्तरार्ध में अपने जीवनसाथी के बगैर ये नया और अप्रत्याशित प्यार दिग्विजय सिंह के आकर्षण का नतीजा है या फिर मिस राय की राजनीतिक महत्वकांक्षा की अमरबेल जिसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार हैं।
 
हालांकि सियासत में अब ऐसी प्रेम कहानियां बहुत अनोखी भी नहीं रहीं। हरियाणा के उपमुख्यमंत्री रह चुके चंद्रमोहन और वकील अनुराधा बाली की इश्किया को ज्यादा वक्त नहीं हुआ..। लंबे अरसे तक मीडिया में छाए रहे उस प्यार की इंतिहा तो देखिए कि धर्म परिवर्तन से लेकर ब्याह रचाने तक के ऐलान के बावजूद चांद मोहम्मद और फिजा का अफसाना एक दर्दनाक अंजाम से ज्यादा कुछ नहीं बटोर पाया।
राजनेता अमरमणि त्रिपाठी और कवियत्री मधुमिता का प्रेम प्रसंग भी अभी जहन से ज्यादा दूर नहीं हुआ है। इसका नतीजा भी सुखद नहीं रहा। गर्भवती मधुमिता की गोली मारकर हत्या कर दी गई और उसके पीछे भी अमरमणि की ही साजिश बताई गई।
शशि थरूर और सुनंदा पुष्कर की हालिया प्रेमकथा तो शायद ही कोई भूला होगा। पहले प्यार और फिर शादी का चोला पहनने के बावजूद रिश्ते की फितरत नहीं बदली। थरूर की जिंदगी में पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार ने एंट्री मारी और अंजाम एक बार फिर वही। सुनंदा पुष्कर का बेजान जिस्म होटल के कमरे में पड़ा मिला और मौत के पीछे का सच अभी भी सियासी गलियारों में अपना वजूद तलाशता फिर रहा है।
कांग्रेस के दिग्गज नेता रह चुके एन डी तिवारी के प्यार के किस्सों पर तो पूरी किताब भी कम पड़ जाए। बुढ़ापे में बेटे को अपना नाम देने के मुद्दे पर जमकर बदनाम होने और कानूनी दांवपेंच में शिकस्त खाने के बाद तिवारी जी का अदृश्य प्रेम अवतरित तो हुआ पर उसके पीछे की मजबूरी समझना भी ज्यादा मुश्किल नहीं।
राजस्थान के दिग्गज जाट नेता महिपाल मदेरणा के विवाहेत्तर रिश्ते का जिक्र भले ही यहां बेमानी लगे पर नतीजे के पैमाने पर मायने तो इसके भी कम नहीं..। पेट, प्यार और पाप की इस हकीकत में भी भंवरी देवी को जान गंवानी पड़ी और शक की सूई अभी तक कानूनी नुक्तों में ही उलझी हुई है। 
हालांकि सियासी महत्वकांक्षाओं की डोर में बंधी इन नाकाम प्रेम कहानियों से इतर कुछ रिश्ते ऐसे भी रहे जो पूरी शिद्दत से मंजिल ए मकसूद तक पहुंचे भी पर ज्यादातर किस्से असमय ही काल की भेंट चढ़ गए। शायद मोहब्बत में मौकापरस्ती का यही अंजाम होता है।

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

                                        कृष्ण की आलोचना...

दुनिया तुझको पूजे कृष्ण
प्रेम का तू प्रतिक कहलाया
पर मैं तूझको मानू कैसे
क्या तू है यकीन के क़ाबिल
         राधा से तूने प्यार किया
         अपनाया तूने रूकमणी को
        राधा को इंतज़ार दिया
        ख़ुद बस गया महलों में
कृष्ण बता तूने क्या
राधा से नहीं की वंचना
प्रेम का मतलब समर्पण है
तो तू क्यों नहीं हुआ समर्पित
            कृष्ण क्या तेरा प्रेम भी
           समाजिक मर्यादाओं में था बंधा
           कृष्ण तूने कहा सबकुछ मैं
            फिर क्यों ऐसा खेल रचाया
प्रेम का अर्थ ज़ुदाई क्यों
समझौता क्यों जीवन भर
कृष्ण तूझे मानू कैसे
सच कहते  है तू है झलिया
राधा-कृष्ण को प्रेम का नाम दिया
 रंग में रंगे लाखों के संग !

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

                                                                  बाबा रे बाबा


सियासत में जो लोग आपस में बदजुबानी करते है, एक दूसरे के चरित्र का हनन करते है, उनकी बात तो फिर भी समझ में आती है, मगर उन बाबाओं का क्या जो समाज और चरित्र निर्माण की बातें तो खूब करते हैं, आए दिन समाज को नैतिकता की पाठ पढ़ाते भी दिख जाते हैं, ऐसे में जब बाबाओं के बोल बदज़ुबानी की सारी हदें पार कर जाएं तो ये सोचने पर जरूर मजबूर होना पड़ता है कि गेरूआ वस्त्र के पीछे खड़ा आदमी किस श्रेणी का है। बाबा रामदेव जो बतौर योग गुरू लोगों को योग के फायदों के बारे में बताते है, योग से रोगों के इलाज करने का दावा करते नजर आते हैं, लेकिन इनकी ज़ुबान जो बदज़ुबानी की सारी हदें पार कर चुकी है, उसका क्या इलाज है? बीजेपी के बजाए उसके पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के प्रचार करने के लिए बाबा इस लोकसभा चुनाव में बेहद सक्रिय नजर आ रहे है। इनकी सक्रियता इतनी ज्यादा है कि वे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लुटेरी बहु और राहुल गांधी के शादी-शुदा ना होने पर मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि राहुल को कोई लुगाई नहीं मिल रही है, इसलिए वो दलितों की बस्ती में हनीमून मनाने जाते है। बाबा ने ऐसे से ना सिर्फ राहुल को निशाना बनाया है, बल्कि कहीं ना कहीं दलित बस्ती में रहने वाली लड़कियों को भी सरेआम बदनाम किया है। ये वो बाबा है जो कालेधन और भ्रष्टाचार के लिए आवाज़ उठाते आए दिन दिख जाते हैं और रामलीला मैदान में जोर-शोर से भूख हड़ताल भी कर चुके हैं लेकिन यही बाबा राजस्थान के अलवर में एक प्रेस कॉफ्रेंस में बीजेपी के साधु नुमा नेता चांद नाथ के साथ कालेधन को लेकर बात करते दिख जाते है और उनसे कहते है कि "बावले हो गए हो क्या, ये बातें यहां मत करो"। साफ जाहिर है कि कहीं ना कहीं कालेधन को बढ़ावा देने में बाबा जी का भी हाथ है.
                                                 ऐसा नहीं की राजनीति में अकेले बाबा रामदेव की सक्रियता नजर आती है। ख़ुद को मोह-माया और दुनियादारी से दूर रखने का दावा करने वाले ऐसे कई बाबा है जो राजनीति में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सालों से सक्रिय भूमिका में नजर आते रहे हैं। कई बाबाओं ने तो बाकायदा अपनी राजनीतिक पार्टी भी बनाई जिसमें एक नाम संत स्वामी करपात्री जी महाराज का भी है जिन्होंने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद पार्टी बनाई। ये पार्टी 1952 के चुनाव में तीन लोकसभा सीटें और 1962 में भी दो लोकसभा सीट पर जीती। इतना ही नहीं कुछ राज्यों में इस पार्टी को विधानसभा सीटें भी मिली लेकिन बाद में यह पार्टी अखिल भारतीय जनसंघ मे मिल गई। दूसरा नाम जयदेव गुरू जी का है। मथुरा के बाबा जो 80के दशक में उत्तर भारत में बेहद लोकप्रिय बाबाओं में से एक थे। इनका नारा था "सतयुग आएगा"। जयदेव बाबा को भी राजनीति में आने का मोह चढ़ा और उन्होंने दूरदर्शी पार्टी बनाने का एलान कर दिया। मगर बाबा का जयकारा लगाने वाले लोग, उनके प्रवचनों में हुजूम लगाने वाले लोगों ने ही बाबा की पार्टी को स्वीकार नहीं किया और यह पार्टी खुद ब खुद समाप्त हो गई। हालांकि जयदेव बाबा अब इस दुनिया में नहीं है मगर उनकी अकूत संपत्ति को लेकर विवाद जारी है। बाबा महेश योगी, इस नाम से भी काफी लोग वाकिफ होंगे। इनको भी राजनीति में आने की महत्वाकांक्षा हुई तो अंतर्राष्ट्रीय नेचुरल पार्टी का ऐलान कर दिया। भारत में इनकी पार्टी का नाम अजेय भारत पार्टी था पर वो चुनाव में सिर्फ एक उम्मीदवार को ही संसद भेज पाई।  अजेय पार्टी का हश्र भी वहीं हुआ जो बाकी बाबाओं की पार्टियों का हुआ। हालांकि महेश योगी जी का संबंध तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी के साथ बताया जाता था। आध्यात्म गुरू के नाम पर इन्हें शांतिदूत बनाकर विश्व भ्रमण के लिए भी भेजा गया। महेश योगी बाबा के पास भी करीब 40 लाख डॉलर से ज्यादा की संपत्ति थी। इनका काम भी कालेधन को सफेद धन में बदलने का होता था।
                                इन सब बाबाओं में सबसे ज्यादा लोकप्रियता हासिल करने वाले बाबाओं में एक नाम चंद्रास्वामी का भी रहा है। चंद्रास्वामी, जिनके कदमों में कई नेताओं ने सिर नवाया। 90 के दशक में भारतीय राजनीति में चंद्रास्वामी की तूती बोलती थी। तंत्र-मंत्र में माहिर चंद्रास्वामी राजनीति में बड़े से बड़े फंसे काम को चुटकी बजाते हल करवा देते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से लेकर पीवी नरसिम्हाराव तक चंद्रास्वामी के भक्तों की सूची में कई बड़े सियासी नाम शामिल थे। आरोप तो चंद्रास्वामी पर कुख्यात अपराधियों के साथ सांठगांठ के भी रहे। फेरा (फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट) के आधा दर्जन से ज्यादा मामला चंद्रास्वामी पर दर्ज है। हालांकि चंद्रास्वामी गुरू बनने से पहले राजनीति का स्वाद चख चुके थे। नरसिंह राव जब आंध्र प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष थे, तब उन्होंने चंद्रास्वामी को जिनका नाम तब नेमि चंद्र जैन हुआ करता था, हैदराबाद युवा कांग्रेस का महासचिव बनाया था पर चंद्रास्वामी राजनीति छोड़कर तंत्र-मंत्र की साधना में लग गए। नरसिंह राव के जमाने में तो चंद्रास्वामी को लोग सुपर प्रधानमंत्री के नाम से भी जानते थे। झारखंड मुक्ति मोर्चा के वोट खरीदने के लिए चंद्रास्वामी ने कैप्टन सतीश शर्मा के साथ मिलकर अभियान भी चलाया जो कि बाद में अदालत में साबित भी हो गया। चंद्रास्वामी के बुरे दिन तब से शुरू हुए जब वो कांग्रेस से पंगा ले बैठे। चंद्रास्वामी का नाम राजीव गांधी के हत्या में भी सामने आया और वो जेल के चक्कर भी काट आए है लेकिन आज भी उद्योगपतियों से लेकर फिल्मी कलाकारों तक उनके भक्त की सूची अभी भी बहुत लंबी है।
                                                              स्वामी अग्निवेश ने हरियाणा में राजनीति की और 1979-1982 तक हरियाणा के शिक्षा मंत्री रहे। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अग्निवेश स्वामी का चेहरा कई बार टीवी चैनलों और अखबारों में बयान देते दिख जाता है, मगर इनपर भी छोटे बच्चों से बंधुआ मजदूरी कराने के आरोप लग चुके हैं। बाबा योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से बीजेपी के सासंद हैं। इन्होंने हिंदू युवा वाहिनी नाम से एक सेना भी बना रखी है। राजनीति में आने से पहले योगी आदित्यनाथ गोरखपुर मंदिर में महंत थे। 1998 से योगी आदित्यनाथ गोरखपुर का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। योगी आदित्यनाथ हिन्दुत्व का चेहरा माने जाते हैं। कई मामलों में इनका नाम सामने आया है। भगवा वस्त्रधारण किए एक संन्यासिन भी राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। वो उमा भारती हैं जो कई मुद्दों पर विवादों में बनी रही हैं।
                                                               इनमें अभी कई और ऐसे नाम हैं जो राजनीति में तो बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं पर अप्रत्यक्ष रूप से भूमिका जरूर अदा करते हैं। आसाराम बापू भी इन मे से एक हैं। बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी भी इनके भक्त हैं और आसाराम के जेल जाने पर बीजेपी की तरफ से संवेदना जताने वालों की भी कमी नहीं थी। ये है राजनीति की कशिश जो हर तबके को अपनी ओर खिंचती है। मोह-माया त्यागने वाले बाबा भी इसकी मोह से नहीं बच पाते। सवाल ये है कि आखिर इन बाबाओं को राजनीति में घुसने का मौका कैसे मिल जाता है? कैसे वो जनता को धोखा देते हैं। राजनीति में आकर भी इन बाबाओं का बदलाव का कोई इरादा नहीं होता। वो तो बस रूपयों की मोहमाया के संग आते है या फिर राजनीतिक दलों के साथ सांठ-गांठ करते हैं ताकि इनका काला-धन सफेद हो सके। अजीब विडंबना है कि जो देश साधु संतों के त्याग और ईमानदारी के लिए विश्वभर में जाना जाता है, उस देश में अब ज्यादा मूंछ दाढ़ी वाले बाबाओं की पहचान धोखाधड़ी के लिए ही बनकर रह गई है। सवाल एक बार फिर वहीं है कि बार-बार मीडिया इन बाबाओं का पोल खोलती है फिर भी इनका रसू कम होने का नाम क्यों नहीं लेता। इनके प्रवचनों और शिविरों में अभी भी लाखों की भीड़ का आना हमारी समझ और चेतना पर सवाल तो खड़े करती ही है। 

मंगलवार, 17 जनवरी 2012

साढ़े तीन साल...महुआ के साथ

साढ़े तीन साल के करियर का जनवरी 2012 में समापन हो गया...मीडिया लाइन की पहली जॉब का अंत...पहले जॉब का साथ कुछ इसतरह से छुटेगा..सोचा नहीं था...मैं खुद अपने हाथों से इस्तीफा टाइप करके जॉब बदलूंगी ये तो सोचा था..मगर बिना किसी कंपनी को ज्वाइन किये...मैं अपना जॉब छोड़ दूंगी ये कल्पना कभी नहीं की थी...वक्त और हालात कुछ इस कदर बन गये थे कि मुझे अपने जॉब को छोड़ना पड़ा...मगर अब क्या...जब मेरे पास जॉब नहीं...तीन साल से ज्यादा बिना रूके..बिना थके काम करने की आदत पड़ जाने के बाद घर पर बैठना थोड़ा खलता है...महुआ न्यूज़...मेरी पहली नौकरी...कई बेहतरनी यादों और कई डरवाने यादों को संजोया हुआ मेरे साथ आया हैं...जो की हमेशा मेरे साथ रहेगा...मैंने यहां कई ऐसे लोगों के साथ काम किया है..जो बेहद ही काबिल थे...अपने आप में ज्ञान से परिपूर्ण...बहुत कुछ सीखने को मिला...कहते हैं ना अपने आसपास से हमेशा सीखना चाहिए...मैंने हमेशा यही किया...जिनसे मैंने सबैसे ज्यादा सीखा...जो मेरे आर्दश है...जिनकी तरह मैं बनना चाहती हूं...वो हैं राकेश यादव...सच में मैंने महुआ न्यूज़ ज्वाइन करने से पहले उन सा इंसान कभी नहीं देखा...बेहद ही शांत..तीन सालों में मैंने आजतक उन्हें गुस्सा करते हुए नहीं देखा...हमेशा बेहद ही शांत रहते थे...चाहे कितना भी तनाव का माहौल हो..चाहे मैं कितनी बड़ी गलतियां करू..बस समझा के छोड़ दिया करते थे...तेज आवाज तो मैंने कभी सुनी ही नहीं...उनकी स्क्रिप्टिंग का कोई जोड़ नहीं था...चाहे वो किसी भी विषय पर क्यों ना हो...दो साल से ज्यादा मैं मंथन प्रोग्राम में उनके साथ काम किया...और आज मेरे पास हर विषय के स्क्रिप्टिंग का खजाना है...जो उन्होंने लिखा है...वो हमेशा मेरे लाइफ में बने रहेंगे...राजेश सिंह...हमारे प्रोग्रामिंग हेड...बहुत ही अच्छे है...फ्रेडली...हमेशा काम करने वाले इंसान...इनसे भी बहुत कुछ सीखा मैंने...पर जो चीज मुझे याद रहेंगी...वो है मीडिया लाइन की पहली डांट जो मैंने इनसे सुनी थी...क्यों सुनी थी...क्या उसमें मेरी गलती थी...ये सवालात मेरे मन में हमेशा रहेगी...क्योंकि जिस वजह से मैंने वो डांट सुनी थी...वो बेहद ही बेतुकी थी...मगर हो सकता है सर की नजरों में वो बहुत बड़ी हो..खैर ये मेरे जीवन का पहला एक्सपिरियेंस था...वैसे सर बहुत ही अच्छे थे...क्योंकि वो अपने काम को परफेक्टली करते थे...अंशुमन तिवारी..महुआ चैनल के हेड...इनसे मेरा सामना बहुत ही कम हुआ...मगर अंशुमन सर बेहद ही अच्छे थे...बहुत ही प्यार से मिलते थे..और मुझे तो हमेशा छुटकी नीतू कहा करते थे...सर की स्क्रिप्टिंग भी बेहतरीन होती थी...ओपी सर...पूरा नाम आज तक नहीं पता..पर ओपी सर आउटपुट हेड..ओपी सर से मैंने सीखा कभी ना हार माननेवाला गुण...टेक्निकली सर बहुत ही साउण्ड थे...कोई भी टेक्निकल काम को कर सकते थे...हालांकि इनसे भी मेरा संपर्क ज्यादा नहीं रहा..ये तो सीनियरों की बात रही..अब मैं अपने कलिग यानी अपने हम उम्र की बात करू..पूजा..मेरी सबसे अच्छी दोस्त..महुआ न्यूज की एक मात्र सहेली जो मेरे साथ ताउम्र रहेगी...मेरी तरह पर थोड़ी सी अलग..मैं महुआ में थोड़ी सी रिजर्व रहा करती थी सिर्फ काम से मतलब..पर पूजा थोड़ी से ज्यादा बोलने वाली हर किसी से इसकी बातचीत होती थी...पूजा के साथ रहकर मैं जो सबसे बुरी आदत सीखी वो है चाय पीने की...वरना मैं चाय पीती ही नहीं थी..मगर पूजा दिल की इतनी साफ थी कि जो दिल में है वही जुबां पर चाहे वो अच्छी हो या बुरी..यहीं बात यहां कुछ लोगों को बुरी लगती थी...मगर वो मेरे लिए बेहद ही खास थी और रहेगी...हिमानी...महुआ न्यूज़ की मॉडल..लटके झटके वाली..मगर हिमानी काम में बेहद ही तेज..मेरी दोस्ती भी हिमानी से रही...मगर वो उसतरह से नहीं ढल पाई जो आज मेरा पूजा के साथ है...क्योंकि हिमानी बेहद ही दिखावती थी..जो की मुझे नहीं पसंद था..पर वो भी मेरे यादों से जुड़ी एक कड़ी है...शिखा सिंह...मैं इन्हें दीदी कहती हूं..और ये मुझे बहन मानती थी...शिखा दीदी लोगों के लिए एक रहस्मयी लड़की के रूप में जानी जाती है...मगर दीदी है बहुत प्यारी...काम बहुत करती है..और सबका का ख्याल रखने वाली लड़की...मगर कुछ आदतें दीदी की सच में सही नहीं थी...क्योंकि वो एक्सटा केयर करनेवाली है...जिसके कारण लोग ये सोच में पड़ जाते है कि क्या ये सच में केयर कर रही है या दिखावा है...क्योंकि आज के समय में कोई भी इतना केयर करनेवाली लड़की हो सकती है क्या..मगर दीदी है बेहद प्यारी...आशुतोष...महुआ का पहला लड़का दोस्त..जिससे ज्यादा वक्त झगड़ते हुए ही बीता...कितनी बार बातचीत बंद हुई..फिर शुरू हुआ...आशुतोष मुझे कभी समझ में नहीं आया..की वो मुझे लेके क्या सोचता है..पता नहीं आगे का साथ इसके साथ कैसा होगा...विकास सिंह...ये भी मेरे दोस्त रहे...और ये हमेशा मेरे साथ फ्लट करने की कोशिश की...दिल की सारी बातें मेरे साथ शेयर किया बिना छुपाये...इनकी बहुत सारी कोशिशें महुआ में नाकामयाब हुई..मगर फिर भी कभी हार नहीं माना...और भी बहुत सारे नाम जिनमें सुभाष सर,राजकुमार सर, सच्चू सर, शामिल है जो टेक्निकल डिपार्मेंट के थे..मेरे यादों में शामिल है...और वर्तमान में भी मेरे साथ रहेंगे...हालांकी इन सालों में बहुत सारे नाम मेरे साथ जुड़े...पर यहां मैं उनका जिक्र नहीं करना चाहुंगी..क्योंकि मैं उन्हें याद नहीं कर सकती...या यू कहिए की कभी वो मेरे यादों में भी नहीं आएंगे...महुआ न्यूज़ के कुछ नाम हमेशा साथ रहेंगे...कुछ यादों के पन्नों में समा जाएंगे...

महुआ न्यूज़ के ढाई साल बेहद ही प्यारा गुजरा, मगर मीडिया की भाषा में सत्ता परिवर्तन होते ही...यानी पुराने बॉस के जाने के बाद उच्चे पदों पर नये लोगों का आना...सही में महुआ के पुराने लोगों के लिए एक बेहद ही भयानक सच था...क्योंकि इनकी नजरों में पुराने लोग कुड़े थे...जिन्हें कुछ नहीं आता था...सच तो ये था कि ये लोग पुराने लोगों को हटा कर अपने लोगों को लाना चाहते थे...और ये मीडिया की सच्चाई है...क्योंकि बड़े पदों पर विराजमान लोग अपने आसपास को अपनों से घेरा बना कर रहना चाहते है..चापलूसों का झुंड बनाकर रहना चाहते है ताकि उनपर कोई हमला ना कर सके...महुआ न्यूज से पुराने लोगों को हटाकर नये लोगों को रखने का सिलसिला शुरू हुआ...मुझे उसवक्त बेहद ही बुरा लगता जब ये कहा जाता कि पुराने लोग कुड़े हैं..बाल बच्चों वाले लोग चुपचाप इनकी बातें सुनते क्योंकि बेरोजगारी किसी को अच्छी नहीं लगती...घर चलाने की जिम्मेदारी सभी के मुंह को बंद करके रखा हुआ है...क्योंकि बड़ों की बातों का जवाब देना यानी अपनी नौकरी से हाथ धोना...मगर शायद मैं ऐसा नहीं कर सकी..जिसके कारण नये बॉस के साथ नहीं बनी...मैं एक ऐसी लड़की जिससे आप दिन भर रात भर काम कर सकती है..मगर मुझे अपना स्थान चाहिए...अगर जहां मेरा स्वाभिमान को चोट पहुंची वहां मैं कतई नहीं काम कर सकती थी...हालांकी सैलरी भी बहुत मैटर कर रही थी...क्योंकि तीन साल गुजर जाने के बाद भी मै बेहद ही कम सैलरी पर काम कर रही थी..नये बॉस का बर्ताव मेरे प्रति बेहद ही बेगाना था...हक की आवाज उठाने की बात करने वाले हक को दबाने में लग गये थे...कुछ बातें यहां जिक्र नहीं कर सकती मगर...फिर भी सत्ता परिवर्तन के कुछ महीने मेरे लिए बेहद ही खराब रहे...जिससे देखते हुए मैंने इस्तीफा दे दिया...हालांकी अब मेरे सामने एक बार फिर से जॉब की चुनौती खड़ी हो गई है...सच में मीडिया लाइन में जॉब मिलना यानी भगवान का मिलना वो भी तब जब आपका इस लाइन में कोई गॉर्ड फादर ना हो तो...वो भी बड़े पोस्ट पर...मीडिया की सच्चाई दूसरों की हक की बातें करो...मगर अपनी नहीं...लोगों के लिए जुबां खोलों मगर अपने लिए नहीं....जुगाड़, चापलूसी ये दो मंत्र अगर आपके पास है तो फिर आपको चिंता नहीं...वरना भटकते रहिए...या फिर परेशान होकर घर बैठ जाइये..या लाइन चेंज कर लीजिए..या फिर दुकान खोल लीजिए...