शनिवार, 30 जनवरी 2010

दिल का प्यार

(बैठे-बैठे कुछ ख्याल आया और ढाल दिया इसे शब्दों में...सोचा आपसभी से शेयर कर लूं.)
कुछ बातें अनसुनी, अनकहीं रह जाती है
ज़ुबा दिल से करती है बेवफाई
नहीं देती साथ ये इसका
आखें दिल का देती है साथ
दिल का दिल आखों को नहीं पाता समझ
ज़ुबा पे फ़िदा है बेचारा दिल
सच्ची पीर को समझता नहीं बेचारा
शब्दों को मानता है अपना साथी
कौन है...सच्चा प्यार आखें या फिर जुब़ा ?

5 टिप्‍पणियां:

  1. sacha pyar to ankhe hi ho sakti hai. Ye kabhi jhut nahi bolti.

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  2. आज के सन्दर्भ में बेहद महत्वपूर्ण और कठिन प्रश्न - सच्चा प्यार आखें या फिर जुब़ा? खुद से वफ़ा और चैन की नींद सोना है तो "जुबाँ"

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  3. दिल तो दिल है....दिवाना है....अनजाना है...उसे नहीं समझ में आता आंखो का भाव...उसे तो सिर्फ दिखाई देता है अपने दिल का घाव...लेकिन ज़ुबा से जुदा आंखे अपना काम उसी इमानदारी से करती रहती है जिस सिद्दत से दिल किसी अनजाने बेचारे को प्यार करता रहता है...लेकिन आंखे दिल का दर्द समझती है...क्योंकि आखिर जमाने भर का दर्द चाहे पीने के लिए...या फिर जीने के लिए..छुपाने के लिए..उड़ेलने के लिए...या बहाने के लिए बनी तो आंखे ही है.... दोस्त तुम्हारे सवाल का जवाब क्या है ये तो नहीं जानता लेकिन हां दिल के पीर से ज्यादा आंखों में दर्द भरा होता है ये मैं जानता हूं..

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